लोकतांत्रिक ढंग से होने वाला विरोध-प्रदर्शन किसी भी मांग को मनवाने का उचित तरीका है, लेकिन कई बार जन आंदोलनों के चलते अराजक स्थितियां पैदा हो जाती हैं, तो इसकी देश और समाज को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। नेपाल में शोशल मीडिया प्लेटफार्म पर प्रतिबंध लगाने का विरोध युवाओं का लोकतांत्रिक अधिकार था, लेकिन जेन-ज़ी आंदोलन के साथ ही वहाँ जो हिंसक गतिविधियाँ पैदा हुई उससे देश की संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ। विरोध का नेतृत्व करने वाले युवाओं को भी इसका भारी अहसास है। संपत्तियों को नुकसान के साथ ही एक बड़ी समस्या यह सामने आई है कि हिंसक वातावरण ने लोगों खासकर बच्चों और किशोरों के दिमाग को बहुत बुरी तरह से झकझोर दिया है। नेपाल के प्रमुख समाचार पत्र ‘काठमांडू पोस्ट’ ने इस संबंध में विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की है। विशेषज्ञों का कहना है कि जिन लोगों को पहले से मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ थीं, उन्हें चिंता और नींद न आने की समस्या और गंभीर हो गई है।
रिपोर्ट के मुताबिक काठमांडू की आठ साल की बच्ची को तब महाराजगंज स्थित कान्ति बाल अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा जब उसने रात में सोना बंद कर दिया और हर समय चिंतित रहने लगी। डॉक्टरों ने बताया कि बच्ची अपने माता-पिता से बार-बार घर छोड़ने की गुहार लगा रही थी। उसे डर सता रहा था कि कोई घर में आग लगा सकता है। जाहिर है हिंसक वातारण ने बच्ची के दिमाग पर बहुत बुरा असर डाला। बच्ची के माता-पिता ने शिकायत की कि वह तब भी चीखने और रोने लगती है जब वे बाथरूम जाते हैं और दरवाजा बंद कर देते हैं।
बाल और किशोर मनोचिकित्सक डॉ. अरुण कुनवार ने कहा। “ बच्ची के माता-पिता चिंतित थे कि पास में लोगों के बोलने या छोटी-सी आवाज़ से भी वह डर जाती है। बच्ची को स्कूल जाने से भी डर लगता था।”
देशभर में लोग अब भी मौतों और विनाश से सदमे में हैं। यह अब सैकड़ों बच्चों और किशोरों में आम समस्या बन गई है, जिन्हें अस्पताल ले जाया गया या घर पर ही इलाज कराया गया।
आंकड़ों के अनुसार, विरोध-प्रदर्शन के बाद कम से कम 74 लोगों की मौत हुई और 1,800 से अधिक घायल हुए हैं। यह विरोध युवाओं ने भ्रष्टाचार और सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ शुरू किया था, लेकिन इसके बाद हिंसा की लपटें यूँ फैली कि जले हुए मकानों से शव मिले।
डॉ. कुनवार ने कहा, “ जेन-ज़ी विरोध के बाद हमारे अस्पताल में बच्चों और किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के मामले काफी बढ़ गए हैं। कई मरीज तीव्र चिंता और अनिद्रा से पीड़ित हैं।”
समस्याएँ उन बच्चों और किशोरों में और भी गंभीर हैं, जिन्हें पहले से मानसिक बीमारियाँ थीं। कई लोग सोशल मीडिया और टीवी पर हिंसक दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। डॉक्टरों का कहना है कि कुछ बच्चों ने खुद तबाही देखी या विरोध में हिस्सा भी लिया।
नेपाल मानसिक अस्पताल के सलाहकार मनोचिकित्सक डॉ. बसुदेव कार्की ने कहा, “मरीज के एक दोस्त की इस घटना में मौत हो गई थी। मरीज आत्मघाती विचार व्यक्त कर रहा था और कह रहा था कि जीने का कोई अर्थ नहीं है।”
ज्यादातर मरीज अस्पताल के बाह्य रोगी विभाग में इलाज कराने आए, कुछ निजी क्लीनिक भी गए। डॉक्टरों और विशेषज्ञों ने कहा कि अधिकांश मरीज नींद की गड़बड़ी से पीड़ित हैं। वे घटना को बार-बार याद करते हैं और डरते हैं कि कहीं ऐसा दोबारा न हो जाए। कई लोगों को घर से बाहर जाने और स्कूल जाने में भय लग रहा है।
कार्की ने कहा, “एक 16 साल की लड़की अभी हमारे इमरजेंसी वार्ड में भर्ती है। वह भी पिछले हफ्ते की घटना से बहुत परेशान है। हम उसे रिलैक्सेशन तकनीक सिखा रहे हैं और दूसरों को नींद की दवाइयाँ दे रहे हैं।”
मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों ने कहा कि बड़े हादसों के बाद मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का उभरना सामान्य है। उन्होंने संबंधित अधिकारियों को जोखिमों के बारे में चेताया और समय पर उपाय करने का आग्रह किया।
2015 के भूकंप के बाद किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि प्रमुख भूकंप प्रभावित जिलों—काठमांडू, गोरखा और सिन्धुपालचोक—में चिंता और अवसाद के मामलों में 34% की वृद्धि हुई थी। 20% में शराब सेवन बढ़ा और 11% में आत्मघाती विचार बढ़े। 34% ने अत्यधिक गुस्से की शिकायत की और 5% से अधिक में PTSD (पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) के लक्षण पाए गए।
कोविड महामारी (2020–21) के दौरान भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं में वृद्धि देखी गई।
विशेषज्ञों का कहना है कि आसान परामर्श सेवाएँ, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का समय पर पता लगाना, जीवन-कौशल सिखाना और जागरूकता अभियान चलाना इन समस्याओं से निपटने के उपाय हो सकते हैं।
इस बीच, स्वास्थ्य एवं जनसंख्या मंत्रालय ने WHO, यूनिसेफ और अन्य राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संगठनों से इस बढ़ती समस्या पर चर्चा की है।
महामारी विज्ञान और रोग नियंत्रण प्रभाग के मानसिक स्वास्थ्य अनुभाग के प्रमुख डॉ. फणिन्द्र बराल ने कहा, “हमने अगले छह महीनों के लिए उपाय शुरू करने का फैसला किया है। हमने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए जागरूकता अभियान चलाने का भी निश्चय किया है, जिनका उपयोग जेन-ज़ी सबसे ज्यादा करता है।”
अधिकारियों ने कहा कि स्वास्थ्यकर्मियों को संवेदनशील आबादी की मानसिक स्थिति का आकलन करने के निर्देश दिए गए हैं, और स्कूल स्वास्थ्य नर्सों को छात्रों की पहचान करने को कहा गया है जो मानसिक आघात से जूझ रहे हैं। साफ है कि आंदोलन की आड़ में उपजी हिंसा का देश और समाज को हर तरह से नुकसान झेलना पड़ता है। हर देश और समाज के लोगों को चाहिए कि वे हिंसा का हमेशा विरोध करें।
